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अहंकार एकमात्र जटिलता

अहंकार एकमात्र जटिलता है। जिन्हें सरल होना है, उन्हें इस सत्य का अनुभव करना होगा। उसकी अनुभूति होते ही सरलता वैसे ही आती है, जैसे कि हमारे पीछे हमारी छाया।
एक संन्यासी का आगमन हुआ था। वे मुझे मिलने आये थे, तो कहते थे कि उन्होंने अपनी सब आवश्यकताएं कम कर ली हैं। और उन्हें और भी कम करने में लगे हैं। जब उन्होंने यह कहा, तो उनकी आंखों में उपलब्धि का- कुछ पाने का, कुछ होने का वही भाव देखा जो कि कुछ दिन पहले एक युवक की आंखों में किसी पद पर पहुंच जाने से देखा था। उसी भाव को धनलोलुप धन पाने पर स्वयं में पाता है। वासना का कोई भी रूप परितृप्ति को निकट जान आंखों में उस चमक को डाल देता है। यह चमक अहंकार ही है। और, स्मरण रहे कि ऊपर से आवश्यकताएं कम कर लेना ही सरल जीवन को पाने के लिए पर्याप्त नहीं है। भीतर अहंकार कम हो, तो ही सरल जीवन के आधार रखे जाते हैं। वस्तुत: अहंकार जितना शून्य हो, आवश्यकताएं अपने आप ही सरल हो जाती हैं। जो इसके विपरीत करता है, वह आवश्यकताएं तो कम कर लेगा, लेकिन उसका अहंकार बढ़ जाएगा और परिणाम में सरलता नहीं और भी आंतरिक जटिलता उसमें पैदा होगी। उस भांति जटिलता मिटती नहीं है, केवल एक नया रूप और वेश ले लेती है। अहंकार कुछ भी पाने की दौड़ से तृप्त होता है। 'और अधिक' की उपलब्धि ही उसका प्राणरस है। जो वस्तुओं के संग्रह में लगे हैं, वे भी 'और अधिक' से पीडि़त होते हैं और जो उन्हें छोड़ने में लगते हें, वे भी उसी 'और अधिक' की दासता करते हैं। अंतत: ये दोनों ही दुख और विषाद को उपलब्ध होते हैं, क्योंकि अहंकार अत्यंत रिक्तता है। उसे तो किसी भी भांति भरा नहीं जा सकता। इस सत्य को जानकर, जो उसे भरना ही छोड़ देते हैं, वे ही वास्तविक सरलता और अपरिग्रह को पाते हैं।
अपरिग्रह को ऊपर से साधना घातक है। अहंकार भीतर न हो, तो बाहर, परिग्रह नहीं रह जाता है। लेकिन, इस भूल में कोई न पड़े कि बाहर परिग्रह न हो, तो भीतर अहंकार न रहेगा। परिग्रह अहंकार का नहीं- अहंकार ही परिग्रह का मूल कारण है।


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प्रेम-पंथ-ऐसो-कठिन

प्रेम का मार्ग कैसे बन सकता है?प्रेम का मार्ग बनाने का एक ही अर्थ होता है कि प्रेम के नैसर्गिक प्रवाह में जो पत्थर डाल दिए गए हैं, वे हटा दो। प्रेम का मार्ग नहीं बनाना होता, सिर्फ बाधाएं हटानी होती हैं। जैसे कि दर्पण है, धूल जमी है। दर्पण नहीं बनाना है, सिर्फ धूल हटा देनी है। दर्पण तो है ही। जैसे पानी का झरना फूटने को तैयार है, मगर एक चट्टान पड़ी है। और झरना नहीं फूट पाता और चट्टान को नहीं तोड़ पाता। चट्टान हटा दो। झरना कहीं से लाना नहीं है, चट्टान के हटते ही झरना बह पड़ेगा। तो मार्ग बनाने का अर्थ विधायक नहीं है, नकारात्मक है। सिर्फ मार्ग की बाधाएं हटा दो। बाधाओं के हटते ही प्रेम सध जाता है।
प्रेम साधा कैसे जा सकता है? प्रेम साधा नहीं जाता, सिर्फ बाधा हटा दो, फिर प्रेम सध जाता है। सिर्फ बीच-बीच में जो चीजें अटकाव डाल रही हैं, उनको दूर कर दो। जैसे सुबह तुम उठे हो, द्वार-दरवाजे बंद हैं, परदे पड़े हैं, सूरज ऊगा है; लेकिन न तो तुम्हें सूरज का ऊगना दिखाई पड़ रहा है-तुम्हारे कमरे में अंधकार है-न पक्षियों के गीत सुनाई पड़ रहे हैं। जरा परदे खोलो, जरा खिड़कियां खोलो, जरा द्वार खोलो-और आ जाएंगी सूरज की किरणें नाचती हुई भीतर, और पक्षियों के गीत फुदकते हुए तुम्हारे भीतर आ जाएंगे। मार्ग नहीं बनाना पड़ा, मार्ग तो था ही और द्वार पर मेहमान आकर खड़ा था, सिर्फ मार्ग की बाधा हटा देनी पड़ी। बाधा हट जाए कि बस प्रेम सध गया।
कठिन हमने बना लिया है, कठिन है नहीं। सुगम है, सरल है, स्वाभाविक है। मगर अगर ऐसा कहा जाए कि सरल है, सुगम है, स्वाभाविक है, तो डर है कि तुम शायद कुछ करो ही नहीं। तुम सोचो, फिर क्या करना है! इसलिए मैं रहीम की बात ही दोहराता हूं कि "प्रेम-पंथ ऐसो कठिन!'
तुम्हें देख कर कहना पड़ रहा है। मुझे कठिन नहीं है, रहीम को कठिन नहीं है, तुम्हें देख कर कहना पड़ रहा है। और तुम्हें ही देख कर कही जाएगी बात। बुद्ध को कठिन नहीं है, कृष्ण को कठिन नहीं है, मीरा को कठिन नहीं है, जीसस को कठिन नहीं है, तुम्हें कठिन है। और उपचार तो तुम्हारे लिए लिखा जा रहा है! दवा तो तुम्हारे लिए सुझाई जा रही है! और तुम धीरे-धीरे हटाओगे पत्थरों को, तो ही हटा पाओगे। और पत्थर भी ऐसे हैं कि जन्मों-जन्मों से जमे हैं। और पत्थर भी ऐसे हैं कि सबने जमाने में सहयोग दिया है। और पत्थर ऐसे हैं कि तुमने जीवन भर जमाने में मेहनत की है। और जब एक दिन अचानक कोई कहेगा, हटाओ इसको, इसी के कारण तुम्हारा जीवन दुख है, नरक बना है, तो तुम राजी न हो सकोगे। तुम नाराज होओगे। राजी होना दूर, तुम उस आदमी पर नाराज होओगे जो इस तरह की बात कहे। क्योंकि तुम्हारे सारे जीवन के श्रम को व्यर्थ किए दे रहा है। तुम्हारे पूरे जीवन का श्रम क्या है? फलश्रुति क्या है? निष्पत्ति क्या है? यही कि तुम एक कारागृह में कैद होकर रह गए हो। अपने ही हाथों से ढाले हुए सींकचे हैं तुम्हारे। और अपने ही हाथों से बनाई गई जंजीरें हैं तुम्हारी।
एक प्राचीन कहानी मुझे सदा प्रीतिकर रही हैयूनान में ऐसा हुआ, हमला हुआ और एथेंस के सारे प्रतिष्ठित लोग पकड़ लिए गए। सौ प्रतिष्ठित लोगों को जंजीरों में बांध कर, बेड़ियां पहना कर जंगलों में फेंक दिया गया कि जंगली जानवर खा जाएं। उन सौ प्रतिष्ठित लोगों में गांव का सबसे प्रतिष्ठित लुहार भी था। वह इतना प्रतिष्ठित लुहार था कि दूर-दूर देशों तक उसका नाम था। उसकी चीजें लाजवाब थीं। वह जो बनाता था वह लाजवाब था। उसकी बनाई चीज टूटती नहीं थी। उसकी बनाई गई जंजीरें कोई तोड़ नहीं सकता था। और सारे लोग तो दुखी थे, बाकी निन्यानबे लोग तो दुखी थे जब उन्हें ले जाने लगे दुश्मन जंगल की तरफ, लेकिन वह लुहार गीत गुनगुना रहा था। उनमें से किसी ने पूछा कि तू हंस रहा है, गीत गा रहा है, पागल हो गया है? मरने की तरफ हम जा रहे हैं! तू होश में है? उसने कहा, मैं लुहार हूं। जीवन भर मैंने जंजीरें बनाई हैं, बेड़ियां बनाई हैं। जो बना सकता है, वह मिटा भी सकता है। घबड़ाओ मत! मैं अपनी जंजीरें ही नहीं तोड़ लूंगा, तुम्हारी भी तोड़ दूंगा। तुम चिंता न करो। एक दफा इनको हमें फेंक कर चले जाने दो, बस। मैं इसकी ही प्रतीक्षा कर रहा हूं कि कब हमें ये फेंक दें जंगल में और जाएं। देर न लगेगी! सब में हिम्मत आ गई। सब में साहस आ गया।
दुश्मन उन्हें जंगल में छोड़ कर भाग गए। बचने की उनकी कोई उम्मीद न थी, रात होने के करीब थी और जंगली जानवर उन्हें खा जाएंगे। सारे लोग घसिट कर इकट्ठे हो गए लुहार के पास। और लुहार रोने लगा, उसकी आंखों से आंसू गिरने लगे। उन्होंने कहा, हुआ क्या? अभी तुम गीत गाते थे, अब तुम रोते क्यों हो? उसने कहा कि नहीं, ये जंजीरें टूटेंगी नहीं। ये तो मेरी ही बनाई हुई जंजीरें हैं। इन्हें तो कोई तोड़ ही नहीं सकता। मैं भी नहीं तोड़ सकता। इन पर तो मेरे हस्ताक्षर हैं। उसकी आदत थी कि अपनी हर बनाई चीज पर हस्ताक्षर कर देता था। उसने अपनी जंजीरें बताईं, उसने कहा कि इनका तोड़ना असंभव है। मैं तो बनाता ही नहीं ऐसी चीज जो टूट सके।
तुम सोचते हो, उस दिन उस लुहार की कैसी मनोदशा हुई होगी? अपनी ही जंजीरों में बंध कर मरना पड़ा। और यही दशा सबकी है। अपनी ही जंजीरों में बंध कर तुम सड़ रहे हो, मर रहे हो, मरोगे। लेकिन इतना मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी जंजीरें इतनी मजबूत नहीं, क्योंकि तुम लुहार भी इतने कुशल नहीं। जंजीरें तोड़ी जा सकती हैं। तुम्हारी जंजीरें भी बस ऐसी ही हैं! कामचलाऊ हैं। तुम्हारा सभी कुछ कामचलाऊ है। टीम-टाम है। तुम्हारी जंजीरें टूट सकती हैं। और तुमने ही उन्हें बनाया है, इसलिए जिस दिन तुम बनाना बंद कर दोगे, उनका टूटना शुरू हो जाएगा। और तुम्हारे ऊपर से अस्वाभाविकता की जंजीरें गिर जाएं, तो प्रेम का झरना फूट पड़े।

प्रेम का पंथ कठिन है, क्योंकि तुम उलटे खड़े हो

कोई आदमी शीर्षासन कर रहा हो, तो उससे कहना ही पड़ेगा कि चलना बहुत कठिन है। और क्या करोगे? जो आदमी शीर्षासन कर रहा है, उससे तुम यह कहो कि चलना बहुत सरल है। वह कहेगा, अगर सरल है, तो मैं क्यों नहीं चल सकता? सरल है तो मैं इंच भर नहीं सरक पा रहा हूं! सिर के बल जो खड़ा है, उसे चलना कठिन है। पैर के बल जो खड़ा है, उसे चलना सरल है। तुम सब सिर के बल खड़े हो। समाज की व्यवस्था ने, पंडित-पुरोहित-राजनीतिज्ञों की व्यवस्था ने तुम्हें सिर के बल खड़ा कर दिया है, अब चलना तुम्हें कठिन है। हां, तुम पैर के बल खड़े हो जाओ तो चलना सरल हो जाए। मगर पैर के बल खड़ा होना अभी कठिन है। क्योंकि सिर के बल खड़ा होना ही तुम जानते हो एकमात्र खड़ा होना है। आदमी को जो सिखाया जाता है, वह उसी से भर जाता है। आदमी को जो दीक्षा दी जाती है, संस्कार दिए जाते हैं, वह उन्हीं में जकड़ जाता है। और तुम्हारे संस्कार ऐसे प्रतीत होते हैं कि तुम्हारी आत्मा हैं। आत्मा नहीं हैं वे।
पावलफ का कंडीशंड रिफ्लेक्स सिद्वांतरूस के एक बड़े मनोवैज्ञानिक पावलफ ने कुछ प्रयोग किए, जिनसे एक सिद्धांत का जन्म हुआ। वह सिद्धांत समझने जैसा है, क्योंकि वह तुम पर लागू है। वह सारी मनुष्य-जाति का इतिहास है उस सिद्धांत में। पावलफ ने सारे प्रयोग कुत्तों पर किए। एक प्रयोग उसने किया कि कुत्ते को रोटी दे, जैसे ही रोटी कुत्ते के सामने आए, सुस्वादु रोटी, कि कुत्ते की लार टपकनी शुरू हो जाए। जब लार टपके और रोटी दे, तभी वह घंटी बजाए। पंद्रह दिन के बाद रोटी तो लाया नहीं, सिर्फ घंटी बजाई-और लार टपकने लगी। अब घंटी से लार टपकने का कोई संबंध नहीं है। अगर तुम किसी कुत्ते के सामने घंटी बजाओ, तो शायद भौंके, मगर लार नहीं टपकाएगा। नाराज हो जाए कि क्यों शोरगुल मचा रखा है? मगर लार किसलिए टपकाए? घंटी कोई भोजन तो नहीं है! लेकिन पहले रोटी दी, लार टपकी, फिर साथ ही घंटी बजाई, तो धीरे-धीरे पंद्रह दिन में रोटी और घंटी की आवाज संयुक्त हो गईं; उनमें एसोसिएशन हो गया; उनमें साहचर्य हो गया; उनमें गठबंधन हो गया; उनकी भांवर पड़ गई। पंद्रह दिन के बाद जब सिर्फ घंटी बजाई तो घंटी के बजने से ही रोटी की याद आई। अब रोटी नहीं है, मगर रोटी की याद काफी है।
तुमने भी देखा न, अगर नींबू की याद करो तो मुंह में पानी दौड़ जाता है। वह पावलफ का सिद्धांत है। तुम अभी करके देख लो। नींबू की याद, और बस पानी दौड़ा। अब यह नींबू शब्द से लार के दौड़ने का क्या संबंध? लेकिन नींबू शब्द से नींबू के अनुभव जुड़े हैं, संयुक्त हो गए हैं। लार तत्क्षण दौड़ पड़ती है। शब्द ही काफी है। किसी सिनेमागृह में जाकर रात के अंधेरे में जोर से चीख दो: आग! आग! और बस भगदड़ मच जाएगी। कोई पूछेगा नहीं कि कहां आग? फुरसत किसको? आग का खतरा ऐसा है कि भगदड़ मच जाएगी। जितना लोग भागेंगे, उतनी ही जोर से भगदड़ मचेगी। जितना भागने की कोशिश करेंगे, दरवाजों पर भीड़ हो जाएगी-उतना धूम-धाम, उतनी मुश्किल मच जाएगी। फिर कोई लाख समझाए कि भई, आग नहीं लगी है; मगर कोई सुनेगा नहीं, पहले लोग बाहर होना चाहेंगे। क्या पता लगी ही हो? आग शब्द, संयोजन हो गया।
पावलफ ने सिद्धांत निकाला कंडीशंड रिफ्लेक्स का-कि हम धीरे-धीरे आदतों से संबंधित हो जाते हैं। हम इतने संबंधित हो जाते हैं कि आदतें हमारी आत्मा बन जाती हैं। और यही हो गया है। बचपन से तुम्हें बहुत सी बातें सिखाई गई हैं। उनमें प्रेम नहीं है। उन बातों में प्रेम जरा भी नहीं है। बल्कि उलटी बातें सिखाई गई हैं। उदाहरण के लिए: घर में मेहमान आए हैं, छोटे बच्चे को पकड़ कर लाया जाता है और कहा कि चाची जी हैं, इनको चुंबन दो। अब छोटे बच्चे को न चुंबन देने की इच्छा है, न चाची जी में कोई रस है, न वह चाहता था कि ये आएं। मगर मां-बाप खड़े हैं, तेज-तर्रार उनकी आंखें हैं, चाची जी को चुंबन देना ही पड़ेगा! अब तुम एक झूठा चुंबन सिखा रहे हो। और अगर यह रोज-रोज होता रहा, कि ये दादा जी आए हैं, इनके पैर पड़ो! उसे न पैर पड़ना है, न कोई सम्मान है इन दादा जी के प्रति। और इन दादा जी को वह भलीभांति जानता है कि मौका पड़ जाए तो उसकी जेब के पैसे भी निकाल लेते हैं। इनके पैर पड़ो? मगर पड़ना पड़ेगा। क्योंकि पिताजी खड़े हैं, वे कह रहे हैं इनके पैर पड़ो।

तुम झूठ सिखा रहे हो

तुम झूठ सिखा रहे हो। तुम श्रद्धा खराब कर रहे हो, तुम प्रेम खराब कर रहे हो, तुम सब विकृत किए दे रहे हो। बड़ा होते-होते यह भूल ही जाएगा कि क्या सच है, क्या झूठ है। चाची जी आएंगी और यह नमस्कार करेगा, और दादा जी आएंगे और यह सिर झुकाएगा। फिर कहीं अगर सच में ही मौका आ जाएगा सिर झुकाने का, तो भी इसका सिर झूठा ही झुकेगा-यह मुश्किल हो गई! और कभी अगर आलिंगन करने की सच्ची स्थिति भी आ जाएगी, तो इसका आलिंगन केवल अभिनय होगा, कृत्रिम होगा। यह अपनी पत्नी का भी आलिंगन करेगा तो बस, वह जो चाची जी को चूमा था, वही संबंध बना रहेगा। और जो तुमने इसे सिखा दिया है, यही यह अपने बच्चों को सिखा जाएगा। ऐसे हर पीढ़ी अपनी बीमारियां नई पीढ़ी को दे देती है। पीढ़ियों से और कुछ मिलता ही नहीं। पीढ़ियां अपनी बीमारियां देती हैं। और बड़े सम्मान से देती हैं कि बच्चों को शिक्षा दी जा रही है, संस्कार दिए जा रहे हैं, शिष्टाचार दिया जा रहा है। सिवाय झूठ, बेईमानी, पाखंड के और कुछ भी नहीं दिया जा रहा है। अगर मां-बाप सच में बच्चे को प्रेम करते हैं, तो वे कहेंगे कि अगर प्रेम हो तो चुंबन; अगर प्रेम न हो तो बात जाने दो। श्रद्धा हो तो झुकना, श्रद्धा न हो तो मत झुकना। ताकि किसी दिन जब श्रद्धा का द्वार आ जाए, तो तुम्हारे झुकने में तुम्हारा प्राण हो, तुम्हारी आत्मा हो, तुम्हारी प्रामाणिकता हो। और जब कभी तुम्हारे द्वार पर प्रेम का फूल खिले तो तुम्हारा आलिंगन जीवंत हो। नहीं तो सब झूठ हुआ जा रहा है। सब झूठ है। औपचारिक है।
इस उपचार के कारण तुम सिर के बल खड़े हो गए हो, और रहीम को कहना पड़ रहा है: "प्रेम-पंथ ऐसो कठिन!' यह प्रेम के कारण नहीं कहना पड़ रहा है, तुम्हारे कारण कहना पड़ रहा है। यह अड़चन तुम्हारी है। तुम बदल जाओ तो प्रेम बड़ा सरल है, बड़ा सुगम है।


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आत्मज्ञान ही मोक्ष है

मैं तुम्हें देखता हूं : तुम्हारे पार जो है, उसे भी देखता हूं।शरीर पर जो रुक जाएं वे आंखें देखती ही नहीं हैं। शरीर कितना पारदर्शी है! सच ही, देह कितनी ही ठोस क्यों न हो, उसे तो नहीं ही छिपा पाती है, जो कि पीछे है।
पर, आंखें ही न हों, तो दूसरी बात है। फिर तो सूरज भी नहीं है। सब खेल आंखों का है। विचार और तर्क से कोई प्रकाश को नहीं जानता है।
वास्तविक आंख की पूर्ति किसी अन्य साधन से नहीं हो सकती है। आंख चाहिए। आत्मिक को देखने के लिए भी आंख चाहिए, एक अंतर्दृष्टि चाहिए। वह है, तो सब है। अन्यथा, न प्रकाश है, न प्रभु है।
जो दूसरे की देह के पार की सत्ता को देखना चाहे, उसे पहले अपनी पार्थिव सत्ता के अतीत झांकना होता है।
जहां तक मैं अपने गहरे में देखता हूं, वहीं तक अन्य देहें भी पारदर्शी हो जाती हैं।
जितनी दूर तक मैं अपनी जड़ता में चैतन्य का आविष्कार कर लेता हूं, उतनी ही दूर तक समस्त जड़ जगत मेरे लिए चैतन्य से भर जाता है। जो मैं हूं, जगत भी वही है। जिस दिन मैं समग्रता में अपने चैतन्य को जान लूं, उसी दिन जगत नहीं रह जाता है।
स्व-अज्ञान संसार है; आत्मज्ञान मोक्ष है।
यही रोज कह रहा हूं, यही प्रत्येक से कह रहा हूं : एक बार देखो कि कौन तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है? इस हड्डी-मांस की देह में कौन आच्छादित है? कौन है, आबद्ध तुम्हारे इस बाह्य रूप में?
इस क्षुद्र में कौन विराट विराजमान है?
कौन है, यह चैतन्य? क्या है, यह चैतन्य?
यह पूछे बिना, यह जाने बिना जीवन सार्थक नहीं है। मैं सब कुछ जान लूं, स्वयं को छोड़कर, तो उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है।
जिस शक्ति से 'पर' जाना जाता है, वह शक्ति स्वयं को भी जानने में समर्थ है। जो अन्य को जान सकती है, वह 'स्वयं' को कैसे नहीं जानेगी!
केवल दिशा-परिवर्तन की बात है।
जो दिख रहा है, उससे उस पर चलना है, जो कि देख रहा है। दृश्य से दृष्टा पर ध्यान परिवर्तन आत्म-ज्ञान की कुंजी है।
विचार प्रवाह में से उस पर जागो, जो उनका भी साक्षी है।
तब एक क्रांति घटित हो जाती है। कोई अवरुद्ध झरना जैसे फूट पड़ा हो, ऐसे ही चैतन्य की धारा जीवन से समस्त जड़ता को बहा ले जाती है।-
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Osho Vani : ओशो वाणी

व्यक्ति, जितना बुद्धिमान होगा, उतना स्वयं के ढंग से जीना चाहेगा। सिर्फ बुद्धिहीन व्यक्ति पर ऊपर से थोपे गए नियम प्रतिक्रिया, रिएक्शन पैदा नहीं करेंगे। तो, दुनिया जितनी बुद्धिहीन थी, उतनी ऊपर से थोपे गए नियमों के खिलाफ बगावत न थी। जब दुनिया बुद्धिमान होती चली जा रही है, बगावत शुरू हो गई है। सब तरफ नियम तोड़े जा रहे हैं। मनुष्य का बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है।
स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्‍छंदता नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि मैं अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता पूर्ण निर्णय करने की स्वयं व्यवस्था चाहता हूँ, अपनी व्यवस्था चाहता हूँ। तो अनुशासन की पुरानी सारी परंपरा एकदम आकर गड्‍ढे में खड़ी हो गई है। वह टूटेगी नहीं। उसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, उसे चलाने की कोशिश नहीं ही करें, क्योंकि जितना हम उसे चलाना चाहेंगे, उतनी ही तीव्रता से मनोप्रेरणा उसे तोड़ने को आतुर हो जाएगी। और उसे तोड़ने की आतुरता बिल्कुल स्वाभाविक, उचित है।
गलत भी नहीं है। तो अब एक नये अनुशासन के विषय में सोचना जरूरी हो गया है, जो व्यक्ति के विवेक के विकास से सहज फलित होता है। एक तो यह नियम है कि दरवाजे से निकलना चाहिए, दीवार से नहीं निकलना चाहिए। यह नियम है। जिस व्यक्ति को यह नियम दिया गया है, उसके विवेक में कहीं भी यह समझ में नहीं आया है कि दीवार से निकलना, सिर तोड़ लेना है। और दरवाजे से निकलने के अतिरिकत कोई मार्ग नहीं है। उसकी समझ में यह बात नहीं आई है। उसके विवेक में यह बात आ जाए तो हमें कहना पड़ेगा कि दरवाजे से निकलो।
वह दरवाजे से निकलेगा। निकलने की यह जो व्यवस्था है उसके भीतर से आएगी, बाहर से नहीं। अब तक शुभ क्या है, अशुभ क्या है, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, यह हमने तय कर लिया था, वह हमने सुनिश्चित कर लिया था। उसे मानकर चलना ही सज्जन व्यक्ति का कर्तव्य था। अब यह नहीं हो सकेगा, नहीं हो रहा है, नहीं होना चाहिए।

मैं जो कह रहा हूँ, वह यह है कि एक-एक व्यक्ति के भीतर उतना सोचना, उतना विचार, उतना विवेक जगा सकते हैं। उसे यह दिखाई पड़ सके कि क्या करना ठीक है, और क्या करना गलत है। निश्चित ही अगर विवेक जगेगा, तो करीब-करीब हमारा विवेक एक से उत्तर देगा, लेकिन उन उत्तरों का एक सा होना बाहर से निर्धारित नहीं होगा, भीतर से निर्धारित होगा। प्रत्येक व्यक्ति के विवेक को जगाने की कोशिश की जानी चाहिए और विवेक से जो अनुशासन आएगा, वह शुभ है। फिर सबसे बड़ा फायदा यह है कि विवेक से आए हुए, अनुशासन में व्यक्ति को कभी परतंत्रता नहीं मालूम पड़ती है।
दूसरे के द्वारा लादा गया सिद्धांत परतंत्रता लाता है। और यह भी ध्यान रहे, परतंत्रता के खिलाफ हमारे मन में विद्रोह पैदा होता है। विद्रोह से नियम तोड़े जाते हैं, और अगर व्यक्ति स्वतंत्र हो, अपने ढंग से जीने की कोशिश से अनुशासन आ जाए, तो कभी विद्रोह पैदा नहीं होगा। इस सारी दुनिया में नए बच्चे जो विद्रोह कर रहे हैं, वह उनकी परतंत्रता के खिलाफ है। उन्हें सब ओर से परतंत्रता मालूम पड़ रही है।
मेरी दृष्टि यह है कि अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत महँगा काम है। अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत खतरनाक बात है। क्योंकि परतंत्रता तोड़ने की आतुरता बढ़ेगी, साथ में अच्‍छी चीज भी टूटेगी। क्योंकि आपने अच्छी चीज के साथ स्वतंत्रता जोड़ी है। अच्छी चीज के साथ स्वतंत्रता हो ही सकती है क्योंकि अच्छी चीज होने के भीतर स्वतंत्रता का स्वप्न ही अनिवार्य है; अन्यथा हम उसके विवेक को जगा सकते हैं। शिक्षा बढ़ी है, संस्कृति बढ़ी है, सभ्यता बढ़ी है, ज्ञान बढ़ा है। आदमी के विवेक को अब जगाया जा सकता है। अब उसका ऊपर से थोपना ‍अनिवार्य नहीं रह गया है।
मेरा कहना यह है कि विवेक विकसित करने की बात है एक-एक चीज के संबंध में। लंबी ‍प्रक्रिया है। किसी को बँधे-बँधाए नियम देना बहुत सरल है कि झूठ मत बोलो, सत्य बोलना धर्म है। पर नियम देने से कुछ होता है? नियम देने से कुछ भी नहीं होता। पुराना अनुशासन गया, आखिरी साँसें गिन रहा है। और पुराने मस्तिष्क उस अनुशासन को जबरदस्ती रोकने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि अगर अनुशासन चला गया, तो क्या होगा? क्योंकि उनका अनुभव यह है कि अनुशासन के रहते भी आदमी अच्छा नहीं था, और अगर अनुशासन चला जाए तो मुश्किल हो जाएगी।
उनका अनुभव यह है कि अनुशासन था, तो भी आदमी अच्छा नहीं था तो अनुशासन नहीं रहेगा, तो आदमी का क्या होगा? उन्हें पता नहीं है कि आदमी के बुरे होने में उनके अनुशासन का नब्बे प्रतिशत हाथ था। गलत अनुशासन था- अज्ञानपूर्ण था, थोपा हुआ था, जबरदस्ती का था।
एक नया अनुशासन पैदा करना पड़ेगा। और वह अनुशासन ऐसा नहीं होगा कि बँधे हुए नियम दे दें। ऐसा होगा‍ कि उसके विवेक को बढ़ाने के मौके दें, और उसके विवेक को बढ़ने दें, और अपने अनुभव बता दें जीवन के, और हट जाएँ रास्ते से बच्चों के। एकदम रास्ते पर खड़े न रहें उनके। सब चीजों में उनके बाँधने की, जंजीरों में कसने की कोशिश न करें। वे जंजीरें तोड़ने को उत्सुक हो गए हैं।
अब जंजीरें बर्दाश्त न करेंगे। अगर भगवान भी जंजीर मालूम पड़ेगा तो टूटेगा, बच नहीं सकता। अब तोड़ने की भी जंजीर बचेगी नहीं, क्योंकि जंजीर के खिलाफ मामला खड़ा हो गया है। अब पूरा जाना होगा, जंजीर बचनी नहीं चाहिए।
लेकिन मनुष्य चेतना के विकास का क्रम है। एक क्रम था जब चेतना इतनी विकसित नहीं थी, नियम थोपे गए थे, सिवाय इसके कोई उपाय नहीं था। अब नियम थोपने की जरूरत नहीं रह गई है। अब नियम बाधा बन गए हैं। अब हमें समझ, अंडरस्टैंडिंग ही बढ़ाने की दिशा में श्रम करना पड़ेगा। तो मैं कहना चाहता हूँ कि समझ, विवेक, एकमात्र अनुशासन है। पूरी प्रक्रिया बिल्कुल अलग होगी। नियम थोपने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग थी।, बायोलॉजिकल अपोजिट है, दोनों बिल्कुल विरोधी हैं। खतरे इसमें उठाने पड़ेंगे। खतरे पुरानी प्रक्रिया में भी बहुत उठाए।
सबसे बड़ा खतरा यह उठाया कि आदमी जड़ हो गया। जिसने नियम माना, वह जड़ हो गया, जिसने नियम नहीं माना, वह बर्बाद हो गया। वे दोनों विकल्प बुरे थे। अगर किसी ने पुराना अनुशासन मान लिया तो वह बिल्कुल ईडियाटिक हो गया, जड़ हो गया। उसकी बुद्धि खो गई। और‍ जिसने बुद्धि को बचाने की कोशिश की, उसे नियम तोड़ने पड़े। वह बर्बाद हो गया, वह अपराधी हो गया, वह प्रॉब्लम बन गया, वह समस्या बन गया। दोनों विकास बुरे सिद्ध हुए। जिसने नियम माना वह खराब हुआ; क्योंकि नियम ने उसको जड़ बना दिया। गुलाम बना दिया। और जिसने नियम तोड़ा, वह स्वच्छंद हो गया। नियम से अच्छापन नहीं आया। 
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